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मेधातिथि: कणव:
सक्त १३
१ सुसमिद्धो न आ वह देवाँ अग्ने हविष्मते । होत: पावक यक्षि च ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव । (सुसमिद्ध:) पूरी तरह प्रदीप्त होकर तू (हवि-ष्मते न:) हवि देनेवाले मुझ याजकके लिए (देवान्) देवोंको (आ वह) ले आ (च) और (पावक) हे पवित्र करनेवाले ! (होत:) हे आवाहक ! [ देवान् ] देवोंके प्रति (यक्षि) यज्ञ कर ।
२
मधुमन्तं तनूनपाद् यज्ञं देवेषु नः कवे । अद्या कृणुहि वीतये ।।
(तनूनपात्) हे देहके पुत्र ! [देहरूपी गृहमें उत्पन्न पुत्र ! ] (अद्य) आज । ही (यज्ञं) यज्ञको (देवेषु) देवोंके लिए, (वीतये) उनके आनन्दोपभोगके लिए (मधुमन्तं कृणुहि) मधुमय बना, अथवा उसे देवोंके बीच मधुपूर्ण बना, (कवे) हे द्रष्टा !
३
नराशंसभिह प्रियमस्मिन् यज्ञ उप ह्वये । मधुजिह्वं हविष्कृतम् ।।
मैं (नराशंसं) [ देवोंके प्रतिनिधि ] उस देवका जो (प्रियं) प्रिय है, (हविष्कृतं) हवियोंका सर्जन करता है और (मधुजिह्वम्) मधुमय जिह्वासे युक्त है, (इह अस्मिन् यज्ञे) यहाँ इस यज्ञमें (उप ह्वये) आह्वान करता हूँ ।
४
अग्ने सुखतमे रथे देवाँ ईळित आ वह । असि होता मनुर्हित: ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव ! (ईळित:) स्तुति किया हुआ तू (सुखतमे रथे) ३८२ अपने अत्यंत सुखमय रथमें (देवान् आ वह) देवोंको यहाँ ला । [ क्योंकि ] तू (मनु:-हित:) मनुष्यों द्वारा स्थापित (होता असि) आवाहक है ।
५
स्तृणीत बर्हिरानुषग् घृतपृष्ठं मनीषिण: । यत्रामृतस्य चक्षणमू ।।
(मनीषिण:) हे मनीषियो ! तुम (बर्हि: स्तृणीत) ऐसे पवित्र आसनको बिछाओ जो (आनुषक्) अविच्छिन्न हो और यथार्थ विधिसे सम्पन्न हो, (घृत-पृष्ठं) [ घृतकी ] निर्मल आहुतियोंसे सींचा हुआ हो, (यत्न) जिसपर (अमृतस्य चक्षणम्) अमरताका दर्शन होता है । ३८३ |